हालांकि भारतीय राजनीति में क्रास वोटिंग की बात नई नहीं है. दशकों पुरानी है लेकिन अक्सर राष्ट्रपति चुनावों से लेकर राज्यसभा चुनावों तक में ये स्थिति देखने में आती है कि सांसद और विधायक पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट देते हैं. पार्टी कसमसा कर रह जाती हैं. उन्हें ऐसा करने से रोक नहीं पातीं. कार्रवाई जरूर कर सकती हैं लेकिन वोटिंग के बाद ही. लेकिन उन्हें संविधान और कानून का वो आधार नहीं मिलता, जो व्हिप का उल्लंघन करने पर खुद-ब-खुद हासिल हो जाता है.
उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की 15 राज्यसभा सीटों के लिए 27 फरवरी को हुए चुनाव में विधायकों ने कुछ ऐसा ही किया. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के 08 विधायकों ने क्रासवोटिंग की तो हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के 06 विधायकों ने ये किया तो कर्नाटक में 02 बीजेपी विधायकों ने पार्टी लाइन से अलग जाकर वोटिंग की.
पहली बार तब जमकर क्रास वोटिंग हुई थी
वैसे भारतीय राजनीति में क्रास वोटिंग का सबसे तहलकेदार मामला 1969 में राष्ट्रपति चुनावों के दौरान हुआ था जबकि कांग्रेस ने तब आधिकारिक तौर पर नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनाया था लेकिन इस चुनावों में वीवी गिरी स्वतंत्र प्रत्याशी के तौर पर खड़े थे. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पार्टी लाइन से अलग जाकर अपनी ही पार्टी के सांसदों और विधायकों से अंतररात्मा की आवाज पर वोट देने की बात की थी.